“एक बंदर, कैसे जाएगा बाग के अंदर”

हक की लड़ाई में किसकी होगी जीत?
रखवाले तैनात हैं माली से भी खतरनाक

बंदर तो बंदर है कब कहां पलटी मार दे कुछ नहीं कह सकते, लेकिन अगर इंसान पलटी मारे तो उसे क्या कहा जाएगा। बंदर का तो स्वभाव है हर चीज पर हाथ मारना तो जाहिर है वह लालची भी होगा और खुले आसमान के नीचे लगे पेड़ों पर तो उसका खुद ही प्राकृतिक अधिकार बन जाता है। अब बंदर को क्या पता कि पेड़ किस जगह लगा है और किस विभाग का है? पेड़ पर फल लगे हैं तो बंदर का तो प्राकृतिक अधिकार खुद ही बन जाता है कि वह इन फलों का भक्षण करने से पीछे ना हटे।
कहते हैं कि बंदर कितना भी बूढ़ा क्यों ना हो जाए पर गुलाटी मारना नहीं भूलता लेकिन बंदर की गुलाटी पर भी पहरा बिठा दिया जाए तो यह सीधे तौर पर जानवरों के “मौलिक अधिकारों” का भी खनन माना जा सकता है। ऐसा ही एक “नादान बंदर” पहाड़ी वादियों के सरकारी बंगलो में भी घुस आया जिसे एक सेब का पेड़ इतना भा गया कि वह खुद को रोक नहीं पाया!! अब यह बंदर को कहां मालूम था कि जिस सेब को खाने के लिए वह लालायित हो रहा है वह उसकी पहुंच से पास होकर भी कहीं दूर है। लेकिन वह तो बंदर है खुद को रोके भी कैसे? बस दिक्कत यह है कि पास भी कैसे आए क्योंकि फलदार वृक्ष पर तो पहरेदार सलामी दे रहे हैं।
बंदर के आगे बड़ा धर्म संकट है सेब भी खाने हैं और पेड़ तक भी नहीं जा सकता सेब खाए तो कैसे खाएं?”
बंदर मुगालते में था कि उसकी उदर पूर्ति के लिए जंगल में लगे दूसरे पेड़ जैसे ही पेड़ इस बगिया में भी लहरा रहे हैं लेकिन जानता नहीं था कि पेड़ किसके “अधिकार की परिधि” में आता है। बगिया का मालिक जब आएगा तब आएगा लेकिन यह निश्चित है कि सेब बंदर नहीं खाएगा।
बस अब क्या चाहिए था पेड़ की रक्षा तो जरूरी थी, क्या पता बगिया का मालिक कब आदेश कर दे कि सेब कहां गए। पेड़ तो बचाना ही है और मैन पावर भी कोई कम नहीं है, बस एक आदेश किया और पूरा पेड़ पहरेदारओ के कब्जे में।
बंदर का क्या है उसके लिए तो पूरा जंगल खुला है लेकिन यहां तो बगिया में चंद गिनती के ही पेड़ हैं अब वह भी बंदर खाएगा तो बगिया का मालिक क्या हवा खाएगा? बंदर को मेमो-सेमो से क्या लेना देना उसका लेना देना तो एप्पल-मैंगो से ही है, उस पर भी पहले लगा दिए तो फिर कहने खाने के लिए बचा ही क्या?

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