उत्तराखंड पुलिस को महंगा पड़ गया था रणवीर को मौत के घाट उतारना
गाड़ियां भी पलटती हैं तो रेपिस्ट मारे जाते हैं घटनास्थल पर
आरोपिया को भीड़ के हवाले करने की अनुमति नहीं देता कानून
(LALIT UNIYAL)
DEHRADUN: हमारे समाज में अक्सर ही ऐसे मामले सामने आते रहते हैं जो कि मासूम बच्चियों से रेप एवं हत्या से जुड़े होते हैं। कुछ मामलों मे आरोपियों को सजा भी मिली लेकिन कुछ मामलों में अब तक आरोपियों को उनके किए की सजा नहीं मिल पाई है। सजा का तरीका कैसा हो, इस पर कई मतभेद हैं। कानपुर के बिकरू गांव में विकास दुबे का अंजाम हो या फिर तेलंगाना में युवती के साथ सामूहिक दुराचार का मामला। सजा के तरीके भी निराले हैं। निश्चित तौर पर कानून के तरीके से मिलने वाली सजा में कई बार दोषी छूट भी जाते हैं तो कई मामलों में अदालतों की सजाएं नजीर भी बनी हैं।
समाज में सबका सोचने का तरीक अलग है। कुछ मामलों में आरोपियों को समाज भरे चैराहे सजा देने की पैरवी करता है, लेकिन कानून अपनी तरह से काम करता है और किसी भी आरोपी को भीड़ के हवाले नहीं किया जा सकता। हमारे समाज में व्याप्त सामाजिक कुरितियों में अंधी हवस भी एक बीमारी बन गयी है। बच्चियां सुरक्षित नहीं रह गयी हैं। कैसे कल्पना करें कि कौन कहां सुरक्षित है और कहां नहीं। घरों के अंदर भी बच्चों की सुरक्षा की गारंटी नहीं है। सजा का भय नहीं होगा तो अपराधी मनोवृत्ति अपनी सीमाएं भी तोड़ती रहेंगी।
ऐसे मामले बढने के साथ ही सख्त सजा के तौर पर मृत्यु दंड का कानून भी बनाने की मांग उठ रही है और यूं भी बिना सख्त सजा के ऐसी हरकतों पर रोकथाम संभव नहीं है लेकिन कम से कम अपने आसपास के समाज में पनप रही इस प्रवृति को रोकने की एक बड़ी जिम्मेदारी हर नागरिक की भी है।
अधिकांश मामलांे में पुलिस अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करती है और आरोपियों को सलाखों के पीछे पहुंचाने से लेकर सजा दिलाने में कोई कमी नहीं छोड़ती, लेकिन पिफर भी घटनाएं होती रहती हैं और आगे भी ऐसे दुर्भाग्यपूर्ण समाचार सुनने को मिलते रहेंगे। यह भी एक विडंबना ही है कि हमारे समाज में महिलाओं एवं मासूम बच्चिों की सुरक्षा को लेकर बातें तो बहुत होती हैं लेकिन सही दिशा में हम परिणामों तक नहीं पहुंच पाते। कई मामले अदालतांे में साल दर साल चलते रहते हैं।
अब सवाल यह उठता है कि विकास दुबे या फिर तेलंगाना प्रकरण में घटित हुए घटनाक्रम सही हैं या फिर संगीन वारदातों को अंजाम देने वाले अपराधियों को कानून के भरोसे छोड़े देने चाहिए? राय सबकी अलग हो सकती है, लेकिन देश संविधान से चलता है, और कानून से बड़ा कोई भी नहीं है। हां इतना जरूर है कि कभी भावनाएं उबाल खाने लगती हैं तो गाड़ियां भी पलट जाती हैं तो रेपिस्ट घटनास्थल पर ही मुठभेड़ में मारे जाते हैं। हालांकि यह भी नहीं भूलना चाहिए कि कई बार जरूरत से ज्यादा जोश महंगा भी पड़ जाता है ठीक वैसे ही जैसे कि उत्तराखंड में रणवीर मुठभेड़ कांड के बाद हुआ था।