राष्ट्रीय दलों ने बनाया मजाक, क्षेत्रीय दल हो विकल्प

उत्तराखंड की जनता निराश, डबल इंजन के नाम पर प्रदेश से धोखा
शहीदों के सपनों का उत्तराखंड राजनीतिक मजाक बन गया

Dehradun: उत्तराखंड के वे सभी शहीद आज उस घड़ी को कोस रहे होंगे जब उन्होंने अपनी जान देकर इस उत्तराखंड प्रदेश की नींव रखने में अपना सर्वस्व लुटा दिया था। युवा शक्ति, मातृशक्ति और वह सभी उत्तराखंड आंदोलनकारी जिन्होंने एक समृद्ध उत्तराखंड प्रदेश का सपना देखा था आज सोचते होंगे क्या इसलिए उत्तराखंड का निर्माण हुआ कि यहां राष्ट्रीय दल प्रदेश की राजनीति को एक मजाक बना दें। वर्ष 2020 उत्तराखंड बनने के बाद यहां जो नौटंकी मुख्यमंत्री बनने को लेकर चलती आ रही है उसने प्रदेश को धरातल में धकेल दिया है।
कैसी अजीब विडंबना है 20 साल के उत्तराखंड मे केवल पंडित नारायण दत्त तिवारी ही अपना कार्यकाल पूरा कर पाए जबकि ना तो कांग्रेस और ना ही भाजपा के किसी भी मुख्यमंत्री ने अपना कार्यकाल पूरा किया। भारतीय जनता पार्टी में तो मुख्यमंत्री बनने का लालच नेताओं में इस प्रकार से घर कर गया है कि एक के मुख्यमंत्री बनते ही दूसरा उसे पद से खींचने के लिए तड़पने लगता है। बमुश्किल त्रिवेंद्र सिंह रावत को 4 साल पूरे करने दिए गए लेकिन फिर भी अपना कार्यकाल वह भी पूरा नहीं कर पाए। अब तीरथ सिंह रावत को कमान मिली तो वह 100 दिन बाद ही चलते कर दिए गए, भले ही संवैधानिक संकट का हवाला दिया गया हो।
इससे पहले मेजर जनरल बीसी खंडूरी और डॉ रमेश पोखरियाल निशंक के बीच की कुर्सी की लड़ाई पूरे प्रदेश में देखी जहां अपने ही पार्टी के नेता को कुर्सी से उतारने में दोनों नेताओं ने जनता की भावनाओं का भी ख्याल नहीं रखा। हरीश रावत एवं विजय बहुगुणा का कारनामा भी उत्तराखंड कभी नहीं भुला पाएगा। भारतीय जनता पार्टी इस प्रदेश को एक भी स्थाई मुख्यमंत्री नहीं दे पाई। निश्चित तौर पर भाजपा को इस राजनीतिक उथल-पुथल की कीमत चुकानी ही पड़ेगी। जनता को भी अब भाजपा एवं कांग्रेस का विकल्प तलाशना होगा, क्योंकि जब तक इन दोनों ही राष्ट्रीय दलों को प्रदेश की जनता औंधे मुंह नहीं गिरएगी तब तक दिल्ली में बैठे नेता उत्तराखंड की राजनीति को इसी प्रकार मजाक बनाते रहेंगे।
अतः यह जरूरी है कि प्रदेश में अब क्षेत्रीय दलों की सरकार बने ताकि भाजपा कांग्रेस जनता की भावनाओं को समझें और उन्हें एहसास हो कि वह किस प्रकार का खिलवाड़ उत्तराखंड प्रदेश से अब तक करते आ रहे हैं। क्षेत्रीय दलों को मजबूती के साथ एक मंच पर आना होगा लेकिन इन इनके बीच एकजुटता कराना और नेता चुनना भी एक बहुत बड़ी महाभारत बन जाएगा। तो फिर क्या उत्तराखंड इसी प्रकार राजनीतिक स्थिरता की राह पर ही चलता रहेगा?
उत्तराखंड के विकास को आज यही प्रश्न दीमक की तरह खोखला कर रहा है।

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